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क्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर वाले नोट को नेहरू ने बंद करवा दिया था? neta ji subash chandra note

सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन पर पढ़िए वो पड़ताल जिसमें हमने पता किया है कि क्या सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर वाली मुद्रा की कभी नोटबंदी हुई थी या नहीं?


जवाहर लाल नेहरू. आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री. मई 1964 में गुजर गए. 54 बरस में कुछ महीने और जोड़ दो, तब से लेकर अब तक इतना वक्त निकल गया. वक्त बीता तो क्या, नेहरू नहीं बीते. उनका जिक्र अब भी खूब होता है. कभी तारीफ में. कभी कोसने में. सोशल मीडिया पर नेहरू सुपरहिट मसाला हैं. इन दिनों यहां नेहरू का ‘एक और पाप’ वायरल हो रहा है. लोग लिख रहे हैं कि भारतीयों के दिमाग से सुभाष चंद्र बोस का नाम मिट जाए, इसलिए नेहरू ने एक बड़ी चाल चली. उन्होंने बोस की एक निशानी को बंद करवा दिया.
क्या है इस वायरल पोस्ट में?
पोस्ट को तीन हिस्सों में बांट सकते हैं. एक, फोटो. दूसरा, कहानी. तीसरा, अपील.
ये पड़ताल किए जाने तक इस पोस्ट को 6,800 लोग शेयर कर चुके हैं. ढाई हजार लोगों ने इसे लाइक किया है. 
फोटोसबसे पहले फोटो की बात. फोटो है एक नोट जैसी. नोट यानी करंसी. इसके ऊपर लिखा है- 5. मतलब इसका मूल्य 5 है. वैसे इस पर बॉन्ड लिखा है. हालांकि नेताजी की तस्वीर वाले कई नोट पर रुपया भी लिखा मिलता है. बैंक के नाम की जगह लिखा है- आजाद हिंद बैंक. नोट के दाहिने हिस्से में सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर है. वही मिलिटरी यूनिफॉर्म में सलामी देने वाली उनकी फोटो. नोट के बीच के हिस्से में एक किसान हल चला रहा है. इसके बगल में, यानी नोट के बाएं हिस्से में एक इमारत है. जिसके ऊपर कोई झंडा फहरा रहा है. नोट के निचले हिस्से में ‘सुभाष चंद्र बोस’ लिखा है.
और भी कुछ पुरानी पोस्ट्स में हमें ये मेसेज मिला. इनमें भी नेताजी की तस्वीर वाले नोट शेयर किए गए थे.
कहानीवायरल पोस्ट में इस फोटो के साथ एक कहानी है. इसके मुताबिक, ये नेताजी सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर वाला पांच रुपये का नोट है. जवाहर लाल नेहरू ने इसे बंद करवा दिया था. ताकि भारत के लोग नेताजी को, जो कि सच्चे स्वतंत्रता सेनानी थे, भूल जाएं.
अपीलवायरल पोस्ट का आखिरी हिस्सा है इसमें लिखी एक अपील. जो कि लोगों से की गई है. उनसे कहा गया कि वो इस पोस्ट को खूब शेयर करें. इतना शेयर करें, इतना शेयर करें कि सरकार पर दबाव पड़े. और वो इस नोट को दोबारा शुरू करवा दे.
सुभाष चंद्र बोस हिंसक क्रांति के रास्ते आजादी हासिल करने में यकीन रखते थे. उनका मानना था कि अहिंसा के रास्ते भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति नहीं मिलेगी.
सच तक पहुंचने का रास्ता इतिहास से होकर जाता है
1947 से पहले की बात है. तब, जब भारत गुलाम था. 1941 में नेताजी अंग्रेजों की गिरफ्त से भागकर विदेश चले गए थे. 1942 में मोहन सिंह ने ‘आजाद हिंद फौज’ का गठन किया. जुलाई 1943 में नेताजी ने इसका नेतृत्व संभाला. 21 अक्टूबर, 1943 को सिंगापुर में उन्होंने एक अस्थायी सरकार बनाने का ऐलान किया. ये सरकार थी ‘आजाद हिंद’ की. आजाद हिंद माने आजाद हिंदुस्तान. नेताजी ने खुद को इस सरकार का मुखिया बनाया. सरकार यूं बनाई कि वो अंग्रेजों को भारत का शासक नहीं मानते थे. अंग्रेजों से बगावत कर रहे थे. जंग लड़ रहे थे उनके खिलाफ. नेताजी जापान से मदद मांग रहे थे. ये दूसरे विश्व युद्ध का समय था. जापान और ब्रिटेन अलग-अलग टीम में थे. एक-दूसरे से लड़ रहे थे. नेताजी ने प्रोविंशल सरकार बनाकर जापान से कहा, हम अपने मुल्क के नुमाइंदे हैं. हमारे देश पर अंग्रेजों ने जबरन कब्जा किया हुआ है. उनको बाहर निकालने में हमारी मदद करो. उनकी बनाई इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलिपीन्स, कोरिया, चीन, इटली और आयरलैंड जैसे देशों ने भी मान्यता दी.
ये आजाद हिंद बैंक द्वारा जारी किए गए एक लाख के नोट की तस्वीर है. ऐसा नहीं कि बस सुभाष चंद्र बोस के ही तस्वीरों वाली करंसी छपी हो. कई नोटों पर गांधी और नेहरू की भी तस्वीरें छापी गईं. ये करंसी कई पैटर्न्स में छपीं. जैसे, कुछ नोटों पर ‘आजाद हिंद बैंक’ लिखा होता था. तो कुछ पर ‘बैंक ऑफ इंडिपेंडेंट’ छपा होता था.
आजाद हिंद बैंक: कब बना, क्यों बना?नेताजी ने देश को आजाद कराने के लिए जो जंग शुरू की थी, उसके लिए उन्हें काफी सपोर्ट भी मिला. लोगों ने खूब आगे बढ़-बढ़कर चंदा भी दिया उनको. इन पैसों को संभालने के लिए अप्रैल 1944 में एक बैंक भी बनाया गया. उसका नाम था- आजाद हिंद बैंक. जैसे जंग के लिए फंड की जरूरत थी, वैसे ही फंड को मैनेज करने के लिए बैंक की जरूरत थी. इस बैंक की स्थापना हुई रंगून में. रंगून बर्मा की राजधानी थी. बर्मा का ही मॉडर्न नाम म्यांमार है. 1944 के शुरुआती महीनों में नेताजी आजाद हिंद फौज को यहीं बर्मा ले आए. बाद में यही बर्मा अंग्रेजों और जापानियों के बीच की लड़ाई का एक बड़ा अहम मोर्चा बना.
कोई संप्रभु सरकार जो बहुत सारे काम करती है, उनमें से एक काम करंसी निकालना भी होता है. ये आज के जमाने की बात नहीं है. पुराने जमाने में राजा-महाराजा भी अपने नाम के सिक्के निकालते थे. तो उसी तरह नेताजी की इस सरकार ने भी ‘आजाद हिंद बैंक’ के मार्फत अपनी करंसी जारी की. जिन देशों ने ‘आजाद हिंद सरकार’ को सपोर्ट किया, उन्होंने इस करंसी को भी मान्यता दी.
ये नोट भी ‘आजाद हिंद बैंक’ के निकाले गए नोटों में से एक है. कई नोट लोगों के पर्सनल कलेक्शन्स से सामने आए. कई खास मौकों पर आयोजित प्रदर्शनियों में दिखे.
वायरल पोस्ट में दिख रहा नोट कहां का है?
ये नोट उसी ‘आजाद हिंद बैंक’ का जारी किया हुआ है. आज रिजर्व बैंक पांच रुपये के नोट से लेकर 2,000 रुपये तक के नोट और बाकी सारे सिक्के जारी करती है. वैसे ही ‘आजाद हिंद बैंक’ ने भी कई नोट निकाले. 5, 10, 100, 150, 1000 और पांच हजार के नोट भी निकाले इस बैंक ने. सबसे बड़ी करंसी थी इनकी एक लाख रुपये की. ऐसा नहीं कि सारे नोटों का डिजाइन और पैटर्न एक सा ही हो. समय-समय पर प्रदर्शनियों में या फिर किसी के पर्सनल कलेक्शन में इस बैंक के निकाले कुछ नोट्स देखने को मिले. इस करंसी का ऐतिहासिक महत्व है. मगर 1947 में अंग्रेजों की गुलामी से आजाद होकर जो भारत बना, ये उसका नोट नहीं है. नोट बस नोट होता, तो हम और आप अपनी-अपनी टकसाल में रुपये छापते. करंसी का अपना अलग सिस्टम होता है. इसीलिए नेताजी भले हमारे हीरो हों, लेकिन इस नोट को आजाद भारत में लागू नहीं किया जा सकता था. सो ये कहना कि नेहरू ने इसे बंद करवाया, सरासर झूठ है.

‘आजाद हिंद बैंक’ से जुड़ी एक और बड़ी मिस्ट्री थी
नेताजी की मौत के बाद के दशकों बाद तक कुछ कई चीजें रहस्य बनी रहीं. उनमें से एक ये बात भी थी कि आजाद हिंद बैंक का पैसा कहां गया. 2017 में जब नेताजी से जुड़े कई अहम दस्तावेज (जिनको शॉर्ट में नेताजी पेपर्स कहते हैं) सार्वजनिक हुए, तो लगा ये पहेली भी सुलझेगी. मगर ऐसा नहीं हुआ.
नोटों पर नेताजी की तस्वीर छापने की मांग कोर्ट भी पहुंची थी
कलकत्ता हाई कोर्ट के पास एक जनहित याचिका आई थी. पृथ्विश दासगुप्ता नाम के एक शख्स ने ये PIL दाखिल किया था. दासगुप्ता ने याचिका डालने से पहले वित्त मंत्रालय और RBI को चिट्ठी भेजी थी. लिखा था कि नोटों पर नेताजी की फोटो छापी जाए. जवाब नहीं मिला, तो दासगुप्ता अदालत पहुंचे. उनका कहना था कि नेताजी की फोटो को इंडियन करंसी पर क्यों नहीं छापा जाता है. वैसे 2010 में रिजर्व बैंक के एक पैनल ने कहा था कि महात्मा गांधी के अलावा और कोई शख्सियत ऐसी नहीं, जो भारत के मूल्यों को संपूर्ण रूप में जाहिर कर सके.
नेताजी के समर्थक और उनके परिवार के लोग भी करंसी पर उनकी फोटो छापने की मांग कर चुके हैं. मगर वायरल फोटो में बस इन नोटों को जारी किए जाने की अपील नहीं है. उसमें नेहरू को छोटा साबित करने की भावना है. एक खास विचारधारा के लोग लंबे समय से नेहरू को निशाना बना रहे हैं. उनके खिलाफ झूठ फैला रहे हैं. जैसे इस वायरल पोस्ट में उन्होंने लोगों को नेताजी के नाम पर भावुक किया और नेहरू को विलन बना दिया. जबकि नेताजी और नेहरू, दोनों ही स्वतंत्रता सेनानी थे. अंतर बस इतना था कि दोनों के रास्ते अलग थे. एक ने सशस्त्र क्रांति का रास्ता चुना था, दूसरे ने अहिंसा का. संघर्ष तो दोनों ने भारत के लिए ही किया.

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